साथ में बीते दिनों की याद आती है मुझे
याद की खुशबू पहाड़ों से बुलाती है मुझे
याद की खुशबू पहाड़ों से बुलाती है मुझे
सो नही पाया संकू से मैं तेरे जाने के बाद
ख्वाब में आकर रोजाना क्यूं जगाती है मुझे
ढेरों क़समें खाई थी मैनें निभा दी वो सभी
अपने वादे न निभाकर वो सताती है मुझे
मैं खूबियाँ ही खूबियाँ उसकी बयां करता रहा
खामियाँ ही खामियाँ मेरी गिनाती है मुझे
अपनी पलकों पर सजा कर मैंने रख्खा है जिसे
मुझको नजरों से मेरी ही वो गिराती है मुझे
साथ में उसके किसी को देख मैँ सकता नही
साथ में आकर किसी के वो जलाती है मुझे
-- वीरेश अरोड़ा "वीर"
Bahut Khub Sir Ji
ReplyDeleteहार्दिक आभार भावसार साहब ....
ReplyDeleteWaah Waah Waah
ReplyDeleteधन्यवाद झा साहब ...
ReplyDeleteबहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल...
ReplyDelete