कविता - " मैं और मरू "
" मैं और मरू "
मन करता है
मेघ बनूँ
और
नभ में छाऊं,
मरू भूमी के
कृषकों को
मैं हर्षाऊँ,
अपने कालेपन को लाकर,
खेतोँ में उनको ले जाऊं
खेत जुताऊ
मन हर्षित कर दूं,
बीज लगाते
देखूं उनको
खुश हो जाऊं,
यथोवान्छित वृष्टि करके
बंजर को उपजाऊ कर दूं,
रेगिस्तान हटाने को,
हरयाली को लाने को
फिर मन करता है
मेघ बनूँ
और नभ में छाऊं
मरुप्रदेश में हरयाली हो
और मैं मिट जाऊं .....
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